दुष्ट काजी- Akbar Birbal Kahani

दुष्ट काजी

अकबर के जमाने में लोग काजियों की बड़ी इज्जत करते थे। झगड़ों का निपटारा करने के लिए उन्होंने बादशाह की ओर नियुक्त किया जाता था। लेकिन दिल्ली का काजी बड़ा बेईमान था।

एक दिन एक औरत काजी के पास आई। उसने एक थैली काजी की दी और बोली, हुजूर, मैं हज के लिए जा रही हूँ।

यह थैली अपने पास रख लीजिये। इसमें एक हजार सिक्के हैं। हज से लौटने पर मैं अपनी थैली आपसे ले लूँगी।

काजी ने थैली देखी और पूछा, कब तक लौटोगी ? औरत बोली, मक्का जा रही हूँ, हुजूर। दूर का सफर है। लौटने में एक साल तो लग ही जाएगा।

काजी ने बूढी औरत से कहा, देखो, मैं रुपए-पैसों से कोई वास्ता नहीं रखता। लेकिन मैं तुम्हें नाउम्मीद भी नहीं करना चाहता। तुम थैली छोड़ जाओ।

हाँ, तुमने अपनी थैली पर मुहर तो लगा दी है ना!

बूढी औरत ने काजी को थैली पर मुहर तो लगा दी है ना!

बूढी औरत ने काजी को थैली दिखाई और हज के लिए चली गई। वह डेढ़ साल बाद वापिस लौटी तो सबसे पहले काजी के पास गई।

उसने काजी से कहा, हुजूर, थैली रखने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।

अब मैं आ गई हूँ। मेहरबानी करके मेरी थैली लौटा दीजिये। काजी अंदर गया और एक थैली लेकर बाहर आया। बूढी औरत को थैली देने के पहले उसने कहा, ले जाने से पहले अपनी मुहर वगैरह देख लो।

बुढ़िया ने काजी को शुक्रिया अदा काजी अंदर गया और एक थैली लेकर बाहर आया। बूढी औरत को थैली देने के पहले उसने कहा, ले जाने से पहले अपनी मुहर वगैरह देख लो।

बुढ़िया ने काजी को शुक्रिया अदा किया और अपने घर चली गई। घर जाकर जब उसने थैली खोली तो उसे चक्क्र आ गया।

वह चिल्लाई, हाय अल्लाह! इसमें तो ठीकरे ही ठीकरे हैं। मेरे सिक्कों का क्या हुआ।

वह रोती-चिल्लाती काजी के पास आई और बोली, हुजूर थैली में तो मेरे सिक्के नहीं निकले इसमें तो ठीकरे ही ठीकरे हैं। मेरे सिक्कों का क्या हुआ ?

वह रोती-चिल्लाती काजी के पास आई और बोली, हुजूर, थैली में तो मेरे सिक्के नहीं निकले। इसमें तो ठीकरे भरे पड़े हैं।

काजी ने शांति के साथ कहा, मैंने तो तुम्हारी थैली को देखा नहीं कि उसमें क्या है ?

तुमने जैसी मुहरबंद थैली दी, वैसे मैंने तुम्हें लौटा दी।

बुढ़िया शोर मचाती रही, किन्तु काजी ने उसकी एक बात न सुनी।

आखिर उसने बादशाह से न्याय की प्रार्थना की, जहाँपनाह! काजी ने मेरे साथ दगा किया है। थैली में मेरी कुल जमा-पूँजी थी। अब मैं क्या करूँ ?

किन्तु काजी अपनी बात पर अड़ रहा।

बुढ़िया के साथ न्याय जरूरी था। अकबर ने बीरबल से सलाह की। बीरबल बोले, जहाँपनाह, मेरे खयाल से काजी ने थैली फाड़कर उसमें से रुपए निकाल लिए हैं।

बाद में उसे किसी होशियार रफूगर से रफू करवा दिया है।

फिर भी बिना सबूत के फैसला कैसे हो ? बादशाह ने पूछा।

जहाँपनाह, आज रात को सोते समय आप अपनी चादर का एक कोना फाड़ दीजिये। फिर देखिए क्या होता है ?बीरबल ने सुझाव दिया।

दूसरे दिन बीरबल के सुझाव के अनुसार अकबर ने चादर का एक कोना फाड़ दिया। रात को जब वह सोने गए तो उन्होंने देखा कि चादर को बहुत होशियारी से रफू कर दिया गया है।

उसे देखकर यकीन ही नहीं होता था कि यह कभी फटी भी थी।

अकबर ने पहरेदार को बुलाया और पूछा, इसे किसने रफू किया है ?

पहरेदार ने सफाई दी, जहाँपनाह, मेरी खता माफ हो। सजा पाने के दर से मैं शहर के सबसे होशियार रफूगर के पास गया था। उसी ने इसे रफू किया है।

ठीक है। अब तुम जाओ और कल को उस रफूगर को दरबार में हाजिर करो।

अकबर ने हुकुम दिया।

दूसरे दिन रफूगर को दरबार में लाया गया। बादशाह ने उससे पूछा, यह बताओ, कुछ दिन पहले तुमसे किस-किसने काम कराया था ?

रफूगर ने काँपते हुए कहा, जहाँपनाह, काजी साहब ने। मैंने उनकी ठीकरों से भरी थैली रफू की थी।

इसके बाद काजी को दरबार में बुलाया गया। वहाँ रफूगर को देखकर उसके होश गुम हो गए। वह जमीन पर गिड़गिड़ाने लगा, जहाँपनाह, मैं कबूल करता हूँ कि इस औरत के सिक्के मैंने ही लिए थे।

अकबर ने हुक्म दिया, काजी, तुम्हें बरखास्त किया जाता है। इस बुढ़िया को चुकाने के बाद तुम्हारे पास जो भी दौलत बचेगी, उसे शाही खजाने में जमा कर दिया जाएगा।

इस इंसाफ से बुढ़िया बहुत खुश थी। अकबर अपने प्रिय बीरबल के बारे में सोच रहे रहे थे।

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